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निष्पक्ष चुनाव?
आज यानी फरवरी ३, २०१२ को मै अपने मित्र की कार से दिल्ली से ऋषिकेश जा रहा
था| लगभग एक दर्जन बार हम लोगों के कार की तलाशी ली गई| पूछने पर ज्ञात हुआ कि आचार
संहिता लागू है व ऐसा चुनाव में भ्रष्टाचार रोकने के लिए किया जा रहा है|
भ्रष्टाचार की जड़
चुनावआयोग सोनिया
के मातहत राज्यपाल बनवारी द्वारा मायावती व मुलायम को दंप्रसंकीधारा१९७ में दिए गए
संरक्षण को भ्रष्टाचार नहीं मानता| भ्रष्टाचारी केवल वह है जो लूट कर सोनिया को
हिस्सा न दे|
ज्ञातव्य है कि मुलायम और मायावती दोनों को आय की तुलना में अधिक सम्पत्ति
रखने के कारण सीबीआई आपराधिक अभियोग चलाना चाहती है| लेकिन दंप्रसंकीधारा१९७ के
अधीन, जिसे नीचे उद्धृत कर रहा हूँ, सीबीआई तब तक अभियोग नहीं चला सकती, जब तक
सोनिया का मनोनीत राज्यपाल बनवारी अभियोग चलाने की अनुमति न दे|
भारतीय संविधान के
शब्दजालों का गहन अध्ययन कीजिये| स्थिति स्पष्ट हो जायेगी| भारतीय संविधान यह नहीं
कहता कि वैदिक सनातन धर्म को मिटाना है, अपितु कहता है, “इंडिया के राज्यक्षेत्र या उसके किसी
भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या
संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा." भारतीय संविधान का अनुच्छेद
२९(१) भाग ३ मौलिक अधिकार.
भ्रष्टाचारी भारतीय संविधान का
अनुच्छेद ३९(ग) है| इस अनुच्छेद की शर्त है,
"३९(ग)- आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि
जिससे धन व उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो;" भारतीय संविधान का अनुच्छेद ३९(ग).
१९७. न्यायाधीशों और लोकसेवकों
का अभियोजन- “(१) जब किसी व्यक्ति पर, जो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट या ऐसा लोकसेवक
है या था जिसे सरकार द्वारा या उसकी मंजूरी से ही उसके पद से हटाया जा सकेगा,
अन्यथा नहीं, किसी ऐसे अपराध का अभियोग है जिसके बारे में यह अभिकथित हो कि वह
उसके द्वारा तब किया गया था जब वह अपने पदीय कर्तव्य के निर्वहन में कार्य कर रहा
था या जब उसका ऐसे कार्य करना तात्पर्यित था, तब कोई भी न्यायालय ऐसे अपराध का
संज्ञान - ... सरकार की पूर्व मंजूरी से ही करेगा, अन्यथा नहीं; ...” अनुच्छेद ३९(ग).
उपरोक्त अनुच्छेद के अनुसार
नागरिक के पास धन का संकेन्द्रण नहीं होना चाहिए. जनता की सम्पत्ति लूटना लोकसेवक
की संवैधानिक जिम्मेदारी है, अपराध नहीं! अतएव भ्रष्टाचार के लिए
भारतीय संविधान उत्तर दायी है, लोकसेवक नहीं.
भारतीय संविधान का संकलन कर
हिंदुओं का जीवन, इंडिया, नारियां और सम्पत्ति संयुक्त रूप से मुसलमानों और ईसाइयों को सौँप दिया गया है| अभी यह निर्णय नहीं हो पाया है कि धरती पर
ईसाइयत और इस्लाम में से किसका वर्चस्व रहेगा? पूर्व गृह मंत्री लाल कृष्ण अडवाणी
के नेतृत्व में हम अपनी नारियां और देश, भारतीय संविधान के अनुच्छेद २९(१) के संकलन के
बाद से ही, देने के लिए विवश हैं| मुसलमानों और ईसाइयों को चाहिए कि वे आपस में लड़ कर
फैसला कर लें कि इंडिया, हमारी सम्पत्तियां
और हमारी नारियां किसकी रहेंगी?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद
१५९ के अधीन राज्यपाल शपथ/प्रतिज्ञान लेता है, “मैं ... पूरी योग्यता से
संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूँगा|”
शब्दों के महा
मायाजाल को हमारे जगत गुरु स्वामी अमृतानंद देवतीर्थ ने ठेठ शब्दों में इस प्रकार
समझाया है,
भारतीय संविधान यह
नहीं कहता कि शासकों को आप की सम्पत्ति और पूँजी लूटने का अधिकार है| शब्दों के
मायाजाल को समझिए| भारतीय संविधान कहता है, "३९(ग)- आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले
कि जिससे धन व उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो;" भारतीय संविधान का अनुच्छेद
३९(ग).
भारतीय संविधान के
अनुच्छेद ३१ प्रदत्त सम्पत्ति के जिस मौलिक अधिकार को अँगरेज़ और संविधान सभा के
लोग न छीन पाए, उसे भ्रष्ट सांसदों और जजों ने मिल कर लूट लिया और अब तो इस
अनुच्छेद को भारतीय संविधान से ही मिटा दिया गया है. इसे कोई भ्रष्टाचार नहीं
मानता! (ए आई आर १९५१ एस सी ४५८)
सर्वसाधारण गरीबों के लिए ईसाइयों को इतनी पीड़ा है कि जिस भारत
में सन ७१२ से १८३५ तक इस्लाम के निरंतर आक्रमण और लूट के बाद भी मैकाले को एक भी
चोर व भिखारी नहीं मिला, आज वह इंडिया हो गया है, जिसका संविधान ही चोरों और
भिखारियों का जनक है! इतना ही नहीं, संविधान कीशपथ लेनेवाला अपने जीवन, सम्पत्ति
और नारी का अधिकार स्वेच्छा से त्याग कर शासक की दासता स्वीकार करता है|
इसी भ्रष्टाचारी भारतीय संविधान की चुनाव आयोग प्रत्याशियों को शपथ दिलवाता
है| जिसका प्रारूप नीचे उद्धृत कर रहा हूँ:-
3 (क)
संसद के लिए निर्वाचन के लिए अभ्यर्थी द्वारा ली जाने वाली शपथ या किए जाने वाले
प्रतिज्ञान का प्ररूप :-
'मैं, अमुक, जो राज्यसभा (या लोकसभा)
में स्थान भरने के लिए अभ्यर्थी के रूप में नामनिर्देशित हुआ हूँ ईश्वर की शपथ
लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के
संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा और मैं भारत की प्रभुता और
अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा।'
यानी हत्यारे और लुटेरे भारतीय संविधान की शपथ लेने के लिए सभी विवश हैं|
जिसने भी भारतीय संविधान में निष्ठा की शपथ ली है, मानवता का शत्रु है. भारतीय
संविधान के अनुच्छेद २९(१) ने नागरिकों से जीवन और अनुच्छेद ३९(ग) ने सम्पत्ति
रखने का अधिकार २६ जनवरी, १९५० से ही छीन लिया है. वोट द्वारा भी नागरिक इस अधिकार
को नहीं बदल सकते. स्वयं लोकसभा व सर्वोच्च न्यायलय भी कुछ नहीं कर सकती.
यदि आप भारतीय संविधान में आस्था व निष्ठा की शपथ लेते हैं तो आप स्वतंत्र
नहीं रह सकते. क्यों कि जारज व प्रेत ईसा की आज्ञा है कि जो ईसा को राजा स्वीकार न
करे, उसे ईसाई कत्ल कर दें. (बाइबल, लूका १९:२७). इसी प्रकार आप को उपासना की स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है. अजान
व (कुरान ८:३९).
तुलना करिये निम्नलिखित निर्णय से:-
दाण्डिक अपील संख्या
८५७/ १९९६ शकीला अब्दुल गफार खान बनाम वसंत रघुनाथ ढोबले में निर्णय सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि
सरकार सर्वशक्तिमान
और सर्वत्र व्याप्त अध्यापक की तरह लोगों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करती है, यदि सरकार ही कानून तोडने वाली हो जाये
तो यह कानून के अपमान को जन्म देती है| जमीनी हकीकत को नजरंदाज कर, ऐसे समय में जब स्वयं अभियोजन एजेंसी की
भूमिका दांव पर हो तो मामले को प्रत्येक संभावित संदेह से परे साबित करने की
अपेक्षा करना, प्रकरण
विशेष की परिस्थितियों में जैसा कि वर्तमान मामले में ,न्यायिक स्खलन में परिणित होता है व
न्यायप्रणाली को संदेहास्पद बनाता है| अंतिम
परिणाम में समाज पीड़ित होता है और अपराधी प्रोत्साहित होता है| पुलिस अभिरक्षा में यातनाओं में हाल ही
में हुई वृद्धि से न्यायालयों की इस अवास्तविक विचारधारा से प्रोत्साहित होती है इससे लोगों के
दिमाग में यह विश्वास मजबूत होता है कि यदि एक व्यक्ति की लोकप में मृत्यु हो जाती
है तो भी उनका कुछ भी नहीं बिगडेगा कारण कि उसे यातना के प्रकरण में प्रत्यक्ष रूप
से लपेटने के लिए अभियोजन के पास मुश्किल से ही कोई साक्ष्य उपलब्ध
होगा| न्यायालय को इस तथ्य को नजरंदाज नहीं
करना चाहिए कि पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु, कानून द्वारा शासित सभ्य समाज में एक
कलंक है और यह व्यवस्थित सभ्य समाज के लिए गंभीर खतरा है| अभिरक्षा में यातनाएं भारतीय संविधान
द्वारा दिए गए अधिकारों का हनन हैं और यह मानवीय गरिमा से टकराव हैं|
दुर्भाग्य से जजों को भारतीय संविधान के उपरोक्त अनुच्छेद और विधियों में कमी
नहीं दिखाई देती!
सम्पादक.